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ओपिनियन

नक्सलवाद – ऐसा नासूर जो मानता हैं क्रांति बन्दुक की नोक पर होगी

जल जंगल जमीन की लड़ाई – आज नक्सलवाद

नक्सलवाद शब्द सुनते ही आप के दिल – दिमाक – जुबान पर एक ही ख्याल आता हैं नक्सलवादी चाहते क्या हैं यह अपने ही देश के सेनिको के साथ क्यों ख़ूनी जंग करते हैं इस के लियें आप को समस्या की जड़ तक पहुँचना होगा और उसके बाद स्वयं तय करें क्या सही हैं और क्या ग़लत –

नक्सलवाद एक विचारधारा हैं जो अपने तरीके से गरीब , मजलूम , पीड़ित और कमजोर आदिवासी को पूंजीपतियों के शोषण से मुक्त करवाकर , सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने की बात करती हैं और इस विचारधारा के लोगों का मानना हैं की आजादी सत्ता बन्दुक की नोक पर छिन्नी जायेगीं |

नक्सलवाद – नक्सलवाद की जन्म स्थली पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई थी घटनाक्रम यह था की पूंजीपति साहूकार ने गरीब मजदुर की जमीन पर अवैध कब्ज़ा कर लिया और मजदुर परिवार को गंभीर रूप से मारा पीटा जब पीड़ित परिवार स्थानीय पुलिस थाने पर शिकायत करने पहुचें तो स्थानीय थाने के स्टाफ ने भी पीड़ित परिवार को बेरहमी से पीटा |

इस तरह का घटनाक्रम अधिकतर गरीब गाँव वालो के साथ पूंजीपतियों द्वारा होता रहता था उस वक्त के भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू माजुमदार और कानू सान्याल ने नक्सलबाड़ी गाँव के साथ ही अन्य गाँवों के लोगों को साथ लेकर 1967 में सत्ता के ख़िलाफ़ सशस्त्र आंदोलन शुरू किया जिसका केंद बिंदु और आंदोलन का संचालन नक्सलबाड़ी गाँव से रहा |     

चारू मजुमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता  माओत्से तुंग के बड़े प्रशंसक थे  जिन्हें “ माओवाद “ भी कहा जाता हैं  1968 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ एंड लेन‌िनिज्म (CPML) का गठन किया गया जिनके मुखिया दीपेन्द्र भट्टाचार्य थे। यह लोग मार्क्स और लेनिन के सिधान्तों पर काम करने लगें , क्योकिं वे उन्हीं अपना आदर्श मानते थे और प्रभावित थे

वर्ष 1969 में पहली बार चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक व्यापक लड़ाई शुरू कर दी। भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहले आवाज नक्सलवाड़ी से ही उठी थी। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि जमीन उसी को जो उस पर खेती करें नक्सलवाड़ी से शुरु हुआ आंदोलन का प्रभाव पहली बार तब देखा गया जब पश्चिम बंगाल से काँग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा। इस आंदोलन का ही प्रभाव था कि 1977 में पहली बार पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी सरकार के रूप में आयी और ज्योति बसु मुख्यमंत्री बनें |  

सामाजिक क्रांति के नाम पर शुरू हुआ आंदोलन कुछ वर्षो के बाद राजनीति की भेट चढ़ गया ,  आंदोलन में राजनीति का वर्चस्व बढ़ने लगा और आंदोलन शीघ्र ही अपने मुद्दों और मार्गो से भटक गया। जब यह आंदोलन फैलता हुआ बि‌हार पहुँचा तब तक  यह अपने मुद्दों से पूर्णतः भटक चुका था। अब यह लड़ाई भूमि की लड़ाई न रहकर जातीय वर्ग की लड़‌ाई बन चुकी थी। यहां से प्रारम्भ होता है उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच का उग्र संघर्ष जिससे नक्सल आन्दोलन ने देश में नया रूप धारण किया। श्रीराम सेना जो माओवादियों की सबसे बड़ी सेना थी, उसने उच्च वर्ग के विरुद्ध सबसे पहले हिंसक प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया।

इससे पहले 1962 में आंदोलन के हिंसक होने के कारण चारु माजूमदार को धरपकड़ कर लिया गया और 10  दिन के लिए कारावास के समय ही उनकी कारागृह में ही मृत्यु हो गयी। नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने के कारण और अपने मुद्दों से भटकने के कारण तंग आकर 23 मार्च 20 10 को आत्महत्या कर ली |

केंद्र सरकार की गलत नीतिया और हिंसक होते नक्सली –

बीते सालों से नक्सलवाद से निपट लेने की दावेदारी के साथ केंद्र में लगातार मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों की जिस तेजी से बैठकें हो रही थी , उसी तेजी से जमीन पर नक्सल प्रभावित इलाके के दायरे में विस्तार हो रहा था  सात राज्यों में नक्सली असरदार भूमिका में हैं। प्रतिबंध और आतंकवादी घोषित के बावजूद इन राज्यों के 167 जिलों में सीपीआई (माओवादी) की यूनिटें खुल्लम खुल्ला काम कर रही हैं। हिंसा के प्रति नक्सलियों के खास तरीकों   ने हालत विकराल बना रख दिया है। पुलिस बलों पर सीधे हमले और नक्सलियों के गुरिल्ला युद्ध से जानमाल और आर्थिक संसाधन का भयंकर नुकसान हो रहा है।

नक्सलवाद को जड़ से ख़त्म करने के लियें केंद्र सरकार ने कभी प्रभावशाली कदम नहीं उठायें जिसे सीधे तौर पर देखें तो ऐसा लगता हैं सरकार इस समस्या पर कभी गंभीर प्रयास ही नहीं करी नहीं तो अभी तक सकरात्मक प्रभाव देखने को मिल जाते क्या आपको लगता हैं की कोई व्यक्ति अपने माता पिता , पत्नी बच्चे को छोड़ कर अपनी मौत को गले लगाने के लियें हथियार उठायेगा कुछ तो मज़बूरी रही होगी यह गहन रिसर्च का विषय हैं |

समस्या का समाधान संवाद और विश्वास पर था सरकार नरेगा में समाधान देख रही थी दूसरी और पूंजीपतियों को  खदानों के लाइंसेंस दे रही थी यह जमीनी समस्या साथ साथ चल रही हैं जो आपसी अविश्वास को बड़ा रही हैं सरकार नक्सली लोगों को मुख्य भूमिका में लाने के लियें जो बजट रख रही थी उसका बड़ा हिस्सा तो पुलिस और पेट्रोलिंग में खर्च कर रही हैं |

नक्सवाद की चपेट में फंसे राज्य आंध्र प्रदेश,छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड.बिहार और पश्चिम बंगाल पर गौर करें तो ये राज्य पूरी तरह से एक सपाट लाल पट्टी की तरह दिखते हैं। यानी यह साफ है कि एक राज्य के नक्सली दूसरे राज्य के नक्सलियों से सीधे संपर्क में रहकर विस्तार योजना को मूर्तरूप दे रहे हैं। राज्यों के प्रशासन के बीच सुरक्षा तंत्र बंटा पडा है लेकिन नक्सली एक हैं।  नेपाल के माओवादियों से भारतीय नक्सलियों  के दांत कटी रोटी के रिश्तों के सबूत बताते हैं कि नक्सल योजनाकारों का इरादा तिरूपति से पशुपतिनाथ तक लाल पट्टी बनाने का है।  आगे नेपाल के माओवादियों पर चीन के असर बाकी कहानी कह रहा है। यानी खतरा ना सिर्फ खतरनाक है बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता का है।

केंद्र सरकार की एक सर्व रिपोर्ट के अनुसार देश का 40 प्रतिशत हिस्सा नक्सलियों के असर में आ गया है। वहां के विकास संसाधन यानी नरेगा और निर्माण जैसी योजनाओं के अमल पर नक्सलियों को सीधे हिस्सेदारी मिल रही है।  अकेले छत्तीसगढ से नक्सली तकरीबन 300 करोड़ रुपए में वसूल रहे हैं। यानी खनिज संपदा सपन्न आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, बिहार औऱ पश्चिम बंगाल से वसूली की जा रही हैं कुल वसूली को जोड़े तो नक्सली आर्थिक रूप से ताकतवर होते जा रहे हैं।  देश के खनिज संपदा संपन्न इलाकों में नक्सलियों की खास रूचि को गंभीर साजिश का हिस्सा माना जा रहा हैं |

इन खतरों को देखते हुए जरुरी सवाल है कि फिर उपाय क्या है नक्सलवाद से निपटने का ? नक्सवाद से निपटने का आखिरी और पहला उपाय सामाजिक क्रांति है। वो क्रांति जिसकी जरूरत बिनोबा भावे ने भूदान आंदोलन के वक्त महसूस किया था। तेजी से बदलती दुनिया को देखकर बाबा भावे को साफ अहसास हो गया था कि अगर जमीन का ठीक से बंटवारा नहीं हुआ तो भारत में खुनी क्रांति के पैरोकारों का जमीन तैयार होने में देर नहीं लगेगी । संत भावे की भविष्यवाणी सौ फीसदी खरी उतरती दिख रही है। बिनोवा भावे आखिरी वक्त तक इस बात से दुखी रहे कि भूमिहीनों के बीच बांटने के लिए जमींदार उनको जो जमीन दान में दे रहे थे वो बंजर और खेती लायक नहीं था। भूदान की जमीन लेकर जमीन लेना वाला खुद को पहले से ज्यादा ठगा महसूस कर रहा है। यानी कि निर्बल को सबल बनाने का आखिरी प्रयोग भी भारत में 1972-73 में फेल हो गया। और सामाजिक चेतना के अभाव में तैयार हुई जमीन पर अब नक्सलवाद की फसल ने लहलहाना तेज कर दिया है। नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह राजनैतिक रोटी सेकती रहीं हैं जो की आम जनता के समझ से परें नज़र आती हैं  |

भारत में नक्सलवाद की बड़ी घटनाएं

  • 2007   छतीसगढ़ और बस्तर मे 300 से ज्यादा विद्रोहियों ने 55 पुलिसकर्मियों को मौत के घाट पर ‌उतार दिया था।
  • 2008  ओड़िसा के नयागढ़  में नक्सलवाद‌ियों ने 14 पुलिसकर्मियों और एक नागरिक की हत्या कर दी।
  • 2009 महाराष्ट के गढ़चिरोली में हुए एक बड़े नक्सली हमले में 15 सीआरपीएफ जवानों की मौत हो गयी।
  • 2010 नक्सलवादियों ने कोलकाता-मुंबई ट्रेन में 150 यात्रियों की हत्या कर दी।
  • 2010 पश्चिम बंगाल के सिल्दा केंप में घुसकर नक्सलियों ने 24 अर्द्धसैनिक बलों को मार गिराया।
  • 2011 छत्तीसगढ के  दंतावादा में हुए एक बड़े नक्सलवादी हमले में कुल 76 जवानों की हत्या कर दी जिसमें सीआरपीएफ के जवान समेत पुल‌िसकर्मी भी शामिल थे।
  • 2012  झारखण्ड के गढ़वा जिले के पास बरिगंवा जंगल में 13 पुलिसकर्मीयों को मार गिराया।
  • 2013 छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सलियों ने कांग्रेस के नेता समेत 27 व्यक्तियों को मार गिराया।

4 अप्रैल 2021 छतीसगढ़ के सुकमा – बीजापुर में हुयें नक्सली हमलें में हमने 22 जवान शहीद हुयें हैं  जबकि 9 नक्सली मारें गयें हैं |

शहरी नक्सलवाद
विगत कुछ वर्षों में शहरी नक्सलवाद या अर्बन नक्सलिज़्म शब्द बड़ी तेजी से सामने आया है। शहरी नक्सलवाद से मतलब, उन शहरी आबादी में रहने वाले लोगों से हैं जो प्रत्यक्ष तौर पर तो नक्सलवादी नहीं है, लेकिन वो नक्सलवादी संगठनों के प्रति और उनकी गतिविधियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं। कई बार इन पर नक्सलियों के लिये युवाओं की भर्ती मदद करने का भी आरोप लगता रहा है।

नक्सलवाद के चरण
1) प्रथम चरण- वर्ष 1967 से 1980 तक का समय नक्सलवादी गतिविधियों का प्रथम चरण था। इसका प्रथम चरण मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवाद पर आधारित था, अर्थात यह ‘वैचारिक और आदर्शवादी’ आंदोलन का चरण रहा है। इस चरण में नक्सलवादियों को ‘ज़मीनी अनुभव तथा अनुमान की कमी’ देखने को मिली। इस चरण में नक्सलियों को ‘‘राष्ट्रीय पहचान” अवश्य मिली।
2) दूसरा चरण- वर्ष 1980 से 2004 तक का समय ज़मीनी अनुभव, ज़रुरत और आवश्यकता के आधार पर चलने वाला क्षेत्रीय नक्सली गतिविधियों का दौर था। इस चरण में नक्सलवाद का व्यवहारिक विकास हुआ।
3) तृतीय चरण- वर्ष 2004 से वर्तमान में ज़ारी इस चरण में नक्सलियों का ‘राष्ट्रीय स्वरूप’ उभरा और ‘विदेशी संपर्क’ बढ़े, जिससे अब नक्सलवाद राष्ट्र की ‘सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती’ बनकर उभरा।

नक्सलवाद की उत्पत्ति के कारण – क्या कहते हैं नक्सली
1) नक्सलियों का कहना है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिये लड़ रहे हैं, जिनकी सरकार ने दशकों से अनदेखी की है। वे ज़मीन के अधिकार एवं संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
2) माओवाद प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल हैं और यहाँ जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इन इलाकों की प्राकृतिक संपदा के दोहन में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने कोई कमी नहीं छोड़ी है। यहाँ न सड़कें हैं, न पीने के लिये पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ और न ही रोज़गार के अवसर।
3) नक्सलवाद के उभार के आर्थिक कारण भी रहे हैं। नक्सली सरकार के विकास कार्यों के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करते हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों का विकास नहीं होने देते और उन्हें सरकार के खिलाफ भड़काते हैं। वे लोगों से वसूली करते हैं एवं समांतर अदालतें लगाते हैं।
4) प्रशासन तक पहुँचना हो पाने के कारण स्थानीय लोग नक्सलियों के अत्याचार का शिकार होते हैं।
5) अशिक्षा और विकास कार्यों की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच गठबंधन को मज़बूत बनाया है।
6) सामाजिक विषमता ही वर्ग संघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार है।
7) शासन की जनहित के लिये बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नई पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छा बहाना मिल जाता है।
8) आम जनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बंद करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के लियें मजबूत इच्छाशक्ति नहीं है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।

सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास –
1) आमतौर पर कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय होता है यानी राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने का काम संबंधित राज्य का होता है। लेकिन नक्सलवाद की विकटता को देखते हुए वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसको राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ी चुनौती बताया। उसके बाद गृह मंत्रालय में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिये एक अलग प्रभाग बनाया गया।
2) सरकार वामपंथी चरमपंथ से प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे, कौशल विकास, शिक्षा, ऊर्जा और डिजिटल कनेक्टिविटी के विस्तार पर काम कर रही है।
3) सरकार वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें बनाने की योजना पर तेज़ी से काम कर रही है और वर्ष 2022 तक 48,877 किमी. सड़कें बनाने का लक्ष्य रखा गया है।
4) वर्ष 2013 में आजीविका योजना के तहत ‘रोशनी’ नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित ज़िलों में युवाओं को रोज़गार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके।
5) वर्ष 2017 में नक्सल समस्या से निपटने के लिये केंद्र सरकर ने आठ सूत्रीय ‘समाधान’नाम से एक कार्ययोजना की शुरुआत की है।

नक्सल समस्या के समाधान में आने वाली चुनौतियाँ

  1. दरअसल नक्सलवाद सामाजिक-आर्थिक कारणों से उपजा था। आदिवासी गरीबी और बेरोज़गारी के कारण एक निचले स्तर की जीवनशैली जीने को मज़बूर हैं। स्वास्थ्य-सुविधा के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत कोई आश्चर्य की बात नहीं।
  2. आदिवासियों का विकास करने के बजाय, उन्हें शिक्षा, चिकित्सा सेवा और रोजगार देने के बजाय उन्हें परेशान करने के नए-नए कानून बनाए जाते हैं।
  3. आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, खेती की दुर्दशा अभी भी जस की तस बनी हुई है। यकीनन इस तरह की समस्यायों में हमेशा असंतोष के बीज होते हैं, जिनमें विद्रोह करने की क्षमता होती है।
  4. इन्हीं असंतोषों की वजह से ही नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है। इससे बड़ी विडंबना ये है कि हमारी सरकारें शायद इस समस्या के सभी संभावित पहलुओं पर विचार नहीं कर रही।
  5. इसके साथ ही बुनियादी ढाँचे का अभाव तथा प्रशिक्षित मानव संसाधनों और संचार सुविधाओं की कमी है।
  6. नक्सलियों द्वारा अंतर्राज्यीय सीमा का लाभ उठाया जाना तथा केंद्र और राज्यों तथा अन्य राज्यों के बीच आपसी समन्वय का अभाव।

कुछ ख़ास पहलु –
1) एक तरफ जहाँ इस समस्या की वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही है, वहीं दूसरी ओर इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है। यही कारण है कि जानकारों की नज़रों में नक्सलवाद सियासी दलों का एक ‘चुनावी तवा’ है जिस पर मौका मिलते ही सत्ता की रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है।
2) ऐसा इसलिये भी कहा जाता है क्योंकि, हमारी सरकारें लगातार संविधान की पाँचवीं अनुसूची को तरजीह देने से कतराती रही हैं। गौरतलब है कि इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से जुड़े मामले आते हैं।
3) पाँचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में Tribes Advisory Council की स्थापना की बात की गई। दरअसल, इन क्षेत्रों में Advisory Council एक तरह की पंचायत है जो आदिवासियों को अपने क्षेत्रों में प्रशासन करने का अधिकार देती है। इस कौंसिल में अधिकतम 20 सदस्य होते हैं जिनके तीन-चौथाई सदस्य वे होते हैं जो संबंधित राज्य की विधान सभा में अनुसूचित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
4) यह सार्वभौमिक सत्य है कि हिंसा से प्राप्त की हुई व्यवस्था ज़्यादा दिन तक चल नहीं पाती और अंततः टूट जाती है। दूसरी ओर सरकार को भी कानून-व्यवस्था की समस्या से ऊपर उठकर इनकी मूलभूत समस्याओं को दूर करने के प्रयास करने चाहिये।

नोट – सरकार को नक्सली क्षेत्रो में मजबूत इच्छा शक्ति और आपसी संवाद के साथ उपरोक्त क्षेत्रो के युवा , महिला , और बच्चों को विश्वास में रहकर रोजगार उत्पन्न करना चाहियें इसके साथ ही खनन कार्यो में थोडा विराम देना चाहियें क्योकि वार्ता और ज्वलंत समस्या साथ न हीं चल सकती , आपसी विश्वास जरुरी हैं |

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